कनिष्ठ उपाध्याय- विद्यालय का वो पहला दिन
हमारे देश में जब बालक बहुत ज्यादा उद्दंडता करता हुआ देखा जाता है तो उसे एक ही बात कही जाती है पढ़ ले बेटा नहीं तो होस्टल भेज देंगे और होता भी ऐसा ही है जब घर वालो की सारी उम्मीद खत्म जाती है तो वे सोचते चलो इसे शास्त्री बनाया जाए , शास्त्री बनकर कुछ तो कर ही लेगा | ठीक ऐसी ही उम्मीद उस 15 साल के एक बालक के माता - पिता को भी थी उन्होंने बड़ी हिम्मत करके अपने दूसरे बेटे को भी शास्त्री करने भेजा | वो पहला या दूसरा ही दिन था ही कि अपने वरिष्ठ भाइयो को वार्डन साहब ( निलय भैया ) से पिटते देखा | हम सब के मन डर बैठा , हम ध्यान रखते कि कोई गलती न हो जाए वरना बहुत कुटाई होगी ,साथ - साथ वरिष्ठ भाई नियमावली भी सिखाते जा रहे थे , पंडित जी से ऐसे बात करनी है , सब भैया को जी लगाकर संबोधित करना है , कोई भी काम हो तो पहले पूछ लो फिर करो वगैरह -वगैरह धीरे धीरे समझ आने लगा कि कैसे रहना है , विद्यालय प्रारंभ होने में अभी भी कुछ दिन बाकी थे परन्तु संजय सर् का वर्णन सुन कर ही रूह कांपने लग गई थी | संयोगवश हमें जिस दिन हमें विद्यालय ले जाया गया उस दिन गुरुवार था और गुरूवार का मतलब उस दिन समझ आया कि इसे गुरूवार क्यों कहते है , जो मारा है न संजय सर ने हमारे सीनियर्स को यह नजारा देखकर मजा आ रहा था कि जो हम पर आदेश चलाते आज वे स्वयं कुट रहे हैं पर साथ ही यह भी लगा कि भैया बोरी बिस्तर बाँध लो यह तो एक दिन अपने साथ भी होना ही है | डरे हुए सहमे से जब विद्यालय से आए तो फिर भैया ने समझाया समय पर काम करोगे तो सर कभी नहीं मारेंगे , पर यह नहीं बताया कि यह प्रसाद तो उन्हें भी कई बार मिल चुका है |
संजय सर् वो दिन कितना ही भयावह क्यों न रहा हो पर आज हम ध्रुवार्थी जहाँ कहीं भी हैं उसमे आपका बहुत योगदान है |